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Sanatan Dharma

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ll HARE RAM ll सनातन धर्म सनातन का अर्थ होता है शाश्वत, नित्य, अनादि और अनंत। अनादिकाल से हमारी संस्कृति को व्यापक स्वरूप

देनेवाला ही सनातन धर्म है। सनातन को वैदिक और हिन्दू धर्म भी कहते हैं। हिन्दुओं के सनातन धर्मावलंबी होने के कारण ही इसको हिन्दू धर्म कहा जाने लगा। वस्तुत: सनातन धर्म ही

सभ्यता और संस्कृति की प्रथम पाठशाला है। सनातन धर्म मनुष्य द्वारा प्रतिपादित मत अथवा पंथ नहीं है यह तो जगत्पिता जगदीश्वर द्वारा संचालित धर्म है। परमेश्वर ने सूर्य,

चन्द्रमा, आकाश, पृथ्वी, वायु, जल, ओषधि, जीव-जन्तु आदि की रचना के साथ इन सबका धर्म भी बनाया। यही हमारा सनातन धर्म है।सनातन धर्म की व्याख्या करने के लिये सबसे पहले

जगत्स्त्रष्टा ब्रह्माजी के मुख से वेदों का उद्भव हुआ। इसके बाद वेदजननी सावित्री ने चार मनोहर वेदों को प्रकट किया। वेद का अर्थ होता है ज्ञान। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद

और अथर्ववेद ये चार वेद हैं। इन वेदों में जीवन के मूलमंत्र हैं। ऋग्वेद में ईश्वरीय आराधना, यजुर्वेद में यज्ञ से सम्बन्धित बातें, सामवेद में गायन सम्बन्धी जानकारी और

अथर्ववेद में आयुर्वेद के बारे में विस्तृत व्याख्या की गई है। इन वेदों के चार उपवेद भी माने गये हैं। ऋग्वेद का उपवेद अर्थवेद, यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद, सामवेद का उपवेद

गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का उपवेद आयुर्वेद है। वेदों के छह अङ्ग हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। इसके द्वारा वेदमन्त्रों के अर्थो का यथार्थ बोध होता

है।इसके अतिरिक्त वेदों के छह उपाङ्ग हैं जिन्हें षड्दर्शन कहा जाता है। दर्शन का अर्थ होता है जिसके द्वारा देखा जाय अर्थात् वस्तु के तात्विक स्वरूप की जानकारी को

स्पष्ट करनेवाला ही दर्शन है। वेदों में बतलाये गये ज्ञान की मीमांसा मुनियों द्वारा दर्शनशास्त्रों में सूत्ररूप से दर्शायी गयी है। ये षड्दर्शन हैं- मीमांसा, वेदान्त,

न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग। वेदों की विस्तृत व्याख्या के लिये ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हुई। इन ग्रन्थों में वेदों में बतलाये गये धर्म एवं यज्ञादि कर्मो की

व्याख्या एवं व्यवस्था की गई। प्रत्येक वेद के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। ऋग्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ ऐतरेय, यजुर्वेद का शतपथ, सामवेद का ताण्ड्य तथा अथर्ववेद का गोपथ

है। वेदों के बाद उपनिषदों की रचना हुई। इनमें वेदों में प्रतिपादित आध्यात्मिक विचारों को समझाया गया है। उपनिषद् का मुख्य अर्थ ब्रह्मविद्या है। वेद का अन्तिम भाग होने

से उपनिषद् को वेदान्त भी कहा जाता है। वस्तुत: उपनिषद् /न्>ज्ञान का आदि स्त्रोत तथा विद्या का अक्षय भण्डार है। उपनिषद् हमें यह बताता है कि यदि जीव स्थायी सुख-शान्ति

प्राप्त करना चाहता है तो उसे आत्मानुभूति के लिये प्रयत्नशील होना पड़ेगा। अध्यात्म के द्वारा ही सुख-शान्ति की प्राप्ति सम्भव है। मुख्यरूप से ग्यारह उपनिषद् हैं-ईश,

केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, श्वेताश्वतर, छान्दोग्य और बृहदारण्यक। इसके बाद पुराणों की रचना हुई। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। पुराणों को परम वेद कहा गया है। महर्षि व्यास द्वारा प्रणीत अठारह पुराण हैं जिनमें ईश्वर सम्बन्धी विचारों की प्रचुरता है। भगवान् के अवतार

श्रीकृष्णद्वैपायन ने पहले वेदों को संकलित एवं व्यवस्थित कर चार भागों में विभक्त किया। इसके कारण वेद व्यास के नाम से विख्यात हुए। इसके बाद उन्होंने पुराणों को संकलित

एवं संक्षिप्त कर चार लाख श्लोकों में सीमित किया। सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित-ये पुराण के पाँच लक्षण हैं। पुराणों की संख्या मुख्यत: अठारह है। इनके क्रम

इस प्रकार हैं- ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, भागवतपुराण, भविष्यपुराण, नारदपुराण, मार्कण्डेयपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, लिङ्गपुराण,

वाराहपुराण, स्कन्दपुराण, वामनपुराण, कूर्मपुराण, गरुड़पुराण और ब्रह्माण्डपुराण। कहीं-कहीं वायुपुराण की भी चर्चा आती है। इसी प्रकार उपपुराणों की संख्या भी अठारह ही

बतायी गयी है। महाभारत इतिहास तथा वाल्मीकीय रामायण महाकाव्य है। श्रीकृष्ण के माहात्म्य से परिपूर्ण पाँच श्रेष्ठ /न्>वासिष्ठ, नारदीय, कापिल, गौतमीय और सनत्कुमारीय

हैं। इसके अतिरिक्त ब्रह्मसंहिता, शिवसंहिता, प्रह्लादसंहिता, गौतमसंहिता और कुमार संहिता-ये पाँच संहिताएँ हैं। सभी संहिताएँ कृष्णभक्ति से ओतप्रोत हैं।शास्त्रों

का यह विशाल भण्डार ही सनातन धर्म का सुदृढ़ आधार है। धर्मग्रन्थों के अस्तित्व में आने के बाद लोगों को धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये हमारे आदिपुरुष स्वायंभुव मनु ने

स्मृति की रचना की जो मनु स्मृति के नाम से लोक में विख्यात है। स्वायंभुव मनु का विवाह शतरूपा से हुआ था, हम सब उन्हीं की सन्तान हैं। मनु स्मृति के द्वारा सनातन धर्म को आचार

संहिता से जोड़ा गया। सनातन धर्म का अर्थ केवल पूजा-पाठ से नहीं है। यह तो मानव के सामने उच्च कोटि का आदर्श प्रस्तुत करता है। यह सर्वव्यापी धर्म हमें जन्म से लेकर

मृत्युपर्यत सारी बातों की विस्तारपूर्वक जानकारी देता है। इसी के तहत मनु स्मृति द्वारा मर्यादा के अनुरूप धर्म को आचरणबद्ध करने का सुन्दर प्रयास किया गया। बहुत दु:ख की

बात है कि आज हिन्दू धर्म में ही कुछ अज्ञानी लोग मनुस्मृति की निन्दा कर रहे हैं। दु:ख की बात इसलिये कि हमारा धर्म पूर्वजों को आदर करना सिखलाता है, इसके बावजूद ये निपट मूर्ख

लोग अपने आदिपुरुष को ही गाली देने में अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। ये नहीं जानते कि समय के अनुरूप धर्म की वह व्याख्या सर्वथा उचित थी। आज जो हिन्दू धर्मावलंबी

सहिष्णु, सहृदय, अनुशासित कहे जाते हैं वह सब हमारे ऋषि-मुनियों की तपस्या का ही फल है।हमारा धर्म मानवीय प्रधान है। मानवता ही हमारे धर्म का मौलिक आधार है। तभी तो वेदव्यास

ने इतने धर्मग्रन्थों की रचना के बाद पाप और पुण्य की सहज व्याख्या की है। अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्॥अर्थात् अठारहों

पुराणों में व्यासजी के दो ही वचन हैं। दूसरे की भलाई करना ही पुण्य है तथा दूसरे को पीड़ा पहुँचाना पाप है। Regards Shashie Shekhar HARE_RAM Astro_Remedies Shashi Shekhar Sharma Delhi Mobile-09818310075 polite.astro polite_astro

Moody friends. Drama queens. Your life? Nope! - their life, your story. Play Sims Stories at Games.

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